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नींद नहीं आती / प्रताप सहगल

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नींद नहीं आती
मुझे पहरे पर मुस्तैद
चौकीदार को देखना है
नींद नहीं आती
बच्चा बीमार है
नींद नहीं आती
मेरे दोस्त का कल
ऑपरेशन है
नींद नहीं आती
दंगों की आग में झुलसा
शिविर में बैठा
चेहरा
बार-बार कौंध जाता है।

गैस फांकते लोग
सवाल उछालते निकल जाते हैं
नींद नहीं आती
देश में तो
बड़ा अमन है
पुलिस और फौज तैनात है हर जगह
गली में भी तो चौकीदार है
फिर भी नहीं आती नींद।
आंखें मींच
खुद को टुकड़ों में बांटता हूं
और उन्हें लड़वाता हूं
बहस नहीं
पत्थर फिंकवाता हूं
खुद को
खुद से ही घायल
करवाता हूं
फिर खुद ही
जज बन जाता हूं
नींद नहीं आती
उठकर सड़क पर आ जाता हूं।
सड़क पर रोशनी है
चौकीदर है
कुत्ते हैं
मेरे घायल टुकड़े हैं
अब मैं टुकड़ों के
सामने खड़ा हूं
नींद नहीं आती
अब मुझे कोई फैसला लेना है।

अभी सिर्फ
इतना ही तय करना है
यह फैसला कमरे में जाकर लूं
या कमरे से बाहर?

1984