भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
नींद में कुंभकरन छै तेॅ जगाबौ तेॅ जरा / अमरेन्द्र
Kavita Kosh से
नींद में कुंभकरन छै तेॅ जगाबौ तेॅ जरा
बाघ हाँसै नै सकेॅ तोहीं हँसाबोॅ तेॅ जरा
दू चार घर केॅ भले तोहें मिटाबेॅ पारोॅ
सरफरोशी के जगलोॅ भाव मिटाबौ तेॅ जरा
जुल्म सें बचलै जे ओकरोॅ तेॅ यहाँ गिनती छै
जेकराकि मारी देलौ ओकरौ गिनाबौ तेॅ जरा
तोहें घरघुस्सा बिलारोॅ हेनोॅ मुटाबै छौ
आरो धमकाबै छौ हमराकि ‘मुटाबौ तेॅ जरा’
जानें घबड़ै लोॅ कैन्हें जी लगै छै आय हमरोॅ
फेरू अमरेन के कुछ शेर सुनाबौ तेॅ जरा
-28.7.86