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नींद में छूटा हुआ घर / प्रकाश मनु

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कुछ है जो खोग या है दोस्तो
कुछ है जिसे तलाशने निकला हूं
शायद वही हो दुष्ट मरीचि/जो लिए-लिए फिरता है
यहां से वहां
वहां से यहां
फिर दूर-
किसी दूसरे ही छोर पर-
जहां किसी अन्धे कुएं की सिसकारियों के साथ
मैं छूट गया हूं अक्सर

यों मैं जिया हूं
यों गुजार दी करीब-करीब सारी ही उम्र
बगैर सिर-पैर के
राह में मिले दोस्तों से औचक पूछते-
सब खैरियत तो है?
शुभचिन्तकों को लिखते खत
बाकी सब खैरियत...
सिर पर बोझ माथा सुन्न
ओ रे प्रभु, ओ...
ओ अहेरी!
कहां खत्म होगी यह सारी ले-दे तुम्हारी-मेरी
कहां रुकेगा चक्का
(आगे बढ़ने से इंकार!)
क्या मैं कुछ भी तय नहीं कर सकता
खुद अपनी जिन्दगी का यार?
देखो मुझे देखो-मुझे छुओ
छुओ मेरी अन्तरात्मा का यह नंगा उजाड़ दोस्तो
मैं जो आदमियों-सा आदमी था
कुछ और होता जा रहा हूं
मेरे जले हुए होठों पर कुछ है-कुछ है थरथराता हुआ-
नहीं-पारा नहीं-
...एक जबरदस्ती की कविता है वह एक अधूरा विश्वास
और बुद्धिजीवियों की भाषा में चाहे तो कहंे एक खण्डित इतिहास
मनुष्यता का
हाथ में लिये बेडौल कटोरे-सा
बैठा हूं शहर के चौराहे पर
बैठा हूं भूमिगत
किसी अपरिचित आहट की प्रतीक्षा में
कि जो हमेशा बिन बताये आती चली जाती है

अचानक घबराकर भीतर के द्वार से
कुछ अपरिचित-अबूझा-सा ढूंढने निकलता हूं
सधे हुए कदमों से जाता
मरे पैरों से लौटता हूं
और उससे नहीं मिल पाता कि जो सर्वांग है
दीपघर मेरा

हर बार थक कर अन्धी शिलाओं पर
शीश पटक चकनाचूर लौटता हूं चिथड़ा तन लिये हर बार
किसी बेवजह गट्ठर-सा
खुद में बन्द होने की कोशिश करता हूं!

उस क्षण बेचैनी के भीतर कई पैरों वाला रेंगता है कोई कीड़ा
रेंगता है निर्मम और मैं तिलमिलाकर
अपने ही पीछे डण्डा लेकर पड़ जाता हूं उन्मत्त हिंसा-ग्रस्त
बेसब्री से ढूंढता हूं
अपने ही शब्दों का अर्थ अपने ही
कदमों के निशान

गुस्से में लेता हूं अपना ही इम्तहान
कि यह क्या बात है कि
अपने ही इरादों को नहीं पढ़ पाता
ज़िन्दगी जीने के दो-चार सिद्धान्त भी नहीं गढ़ पाता
नहीं कहीं भी अड़ पाता और हर बार
पहले से कुछ ज्यादा व्यर्थ होता जाता हूं

पर नहीं मेरे पास जवाब नहीं है, सह-सम्बद्धता नहीं, संगति नहीं
केवल सवाल और सवाल हैं और सवालों का जंगल
जो मुझे चर रहा है अपनी उत्तेजना में लपेट
चट-पट ठोंक-पीट कर बीड़ी बना रहा है

मैं कहां डूबता जा रहा हूं मुझे पता नहीं
मेरी तल्खी का राज मुझे पता नहीं
जल रहा धुंधुआते काठ-सा तन पिघलता मन
अबूझे आक्रोश में
नहीं जानता किसका दिया है यह आक्रोश
किस पर उतरेगा यह आक्रोश

बार-बार उभरती है पिचकी हुई शक्ल
एकतरफा सम्बन्धों से गुज़री ज़िन्दगी की
घावों की घिन में पसरी ज़िन्दगी की

बेवजह सिद्धान्तों की दुर्गन्ध लाश ढोये
घूमता हूं गली-गली ढूंढ़ता हूं गली-गली
कहीं नींद में छूटा हुआ घर अपना
(नन्हे पांवों का चलना
दूधिया हंसी में खुलता हुआ एक खूबसूरत सपना!)

पूछता हूं बगल से गुजरते हर राहगीर से
-कि खो गए हैं अर्थ सारे
मेरे-तुम्हारे-
जिन रास्तों पर वे थे किसके बनाए?