नींद ही नहीं आती / रंजना वर्मा
नागिन-सी कजरारी रातें कितना है तड़पाती।
पल पल कटती रैन अँधेरी नींद ही नहीं आती॥
करवट बदल-बदल कर जब भी पलकें हैं खुल जाती
श्याम गगन में बिखरी मुक्ताओं को गिन-गिन आती।
मृदुल कामना वीरानेपढन के वन में भटकी है
भर भर आती आँखों में पर नींद नहीं घिर पाती।
बरबस पलकें मूंद किसी सुख सपने में खो जाती।
अर्द्ध यामिनी कटी करूं क्या नींद ही नहीं आती॥
पल-पल कटती रैन अँधेरी नींद ही नहीं आती॥
भावों की लतिकाएँ तड़पन के तरु से लिपटी हैं,
आकांक्षाओं की जोकें संशय से जा चिपटी है।
पागल अंतर आज प्रीत-नवनीत लिए कर डोले
संयम के बंधन चटके नियमों की रुष्ट नटी है।
आस कुसुम के क्रीडनकों से हूँ मन को बहलाती।
किंतु करूं क्या हाय निगोड़ी नींद ही नहीं आती।
पल-पल कटती रैन अँधेरी नींद ही नहीं आती॥
सूनी सेज हृदय पर कितने प्रतिबंधों के घेरे
जितना खोलो कसते जाते सम्बंधों के फेरे,
इंद्रधनुष-सी मृग मरीचिकाओं का आंचल थामें
आज चेतना चातक जाने किस प्रियतम को टेरे।
खुले नयन से अमर आत्मा किसका स्वप्न सजाती।
नागिन-सी यह रैन करूं क्या नींद ही नहीं आती।
पल-पल कटती रैन अँधेरी नींद ही नहीं आती॥