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नींद / विजय गुप्त
Kavita Kosh से
अथिर जल में
अनिद्रित मछलियाँ
बर्राता रह-रह पीपल
बेचैनियाँ ओढ़े नीम
अदबदा कर भागता कुत्ता
सियारों की रुलाई
चौकीदार का बस जागना
और चीख़ना -
सोना नहीं ! सोना नहीं !
पर नींद किसकी आँख में
नींद को दुख हर गया
अपमान नींद को चीर गया
आँख के गोलार्द्ध में
उम्र भर का रतजगा
धुनिए की धुनकी पर
धुन गई नींद
आँख भर आँसुओं में
डूब कर
मर गई नींद ।