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नीचे को ही ढो रहा हूं / लोग ही चुनेंगे रंग
Kavita Kosh से
विवस्त्र ठण्डे पानी में
दम घोंट कर नीचे जा रहा हूँ
झील अँधेरे में खोई है
अँधेरे से निकलने के लिए
झील में मैं हूँ
मेरे हाथों में जाम छलकता
रात के अँधेरे में जैसे धूप
तुम कह रहे देश की
राजनीति पर गम्भीर बातें
मैं निहायत ही सरल प्रक्रिया में हूँ
नाक मुँह शरीर के तमाम छेद खुल गए हैं
पानी कल कल बहता है नलियों में
पीड़ा पीड़ा को बुझाती
निगल रही जाम
राजनीति और तुम्हें
बची रह गईं रातें रातें रातें.