भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
नीच मैं मूढ़ दोष की खान / हनुमानप्रसाद पोद्दार
Kavita Kosh से
नीच मैं मूढ़ दोष की खान।
बीत रह्यौ नर-जन्म बृथा ही, मानि रह्यौ मतिमान॥
सुत-बित-रमनि-रमन पद-गौरव, जो छनभंग, अनित्य।
ड्डँस्यौ रैन-दिन मन इन बिषयनि, भूलि सत्य सुख नित्य॥
समुझौं-समुझावौं नित सब कौं, दुःखजोनि सब भोग।
पै मेरौ मन रयौ इनहि में, छाँडि कृष्न-संजोग॥
सोवत, रोवत, पढ़त, खात, खेलत बीत्यौ बहु काल।
धन-जन मान-बड़ाई-हित नित चिंतातुर बेहाल॥
मानव-जन्म सुदुर्लभ हरि नै बड़ी दया करि दीन्हौ।
सो हौं प्रभुहि बिसारि, भोग-रत, पाप-निकेतन कीन्हौ॥
अब हे सहज दयानिधि! अपनौ बिरुद देखि अपनाऔ।
पाप-पंक सौं खींचि तुरत, निज चरननि माँझ बसाऔ॥