नीन्द और जागरण के बीच एक तिलिस्मी युद्ध / अनुपम सिंह
मेरे जागरण में
सफ़ेद चादर में लिपटी
फैली है मरघट की शान्ति
मेरी नीन्द में कोई छोड़ गया है
हाथ कटी औरतों की लाश ।
मैं उतर गई हूँ नीन्द में
इस युद्ध के ख़िलाफ़
नहीं है मेरे पास कोई रक्षामन्त्र
जो वायुवेग से आती हुई तीरों को रोक सके
हाथ में नफीस दस्ताने नहीं हैं
जो जँग खाए खँजरों को धर लें
जूतों से बाहर निकली हैं मेरी अँगुलियाँ
उनकी अक्षौहिणी सेनाओं के
क़दमताल से बने कीचड़ में
गिर गई है मेरी आँख
मैं बिना आँख वाली औरत
रेत पर उतार दी है मैंने
अपनी जर्जर नाव ।
अब तक शान्ति के लिए पूजती रही जिन देवताओं को
वे सब युद्ध के पैरोकार निकले
फिर भी समझौते के लिए प्रस्तुत थी मैं
कि एक तीर आकर लगा मेरे पाँव में
पसलियों में आकर फँस गईं दोमुँही कमानियाँ
यह कहते लौटा बख़्तरधारी वह सेनापति
कि युद्ध में समझौते के लिए नहीं है कोई प्रावधान ।
दर्द से चटक रहा है मेरा घुटना
सूख गई है रीढ़ की मज्जा
समय से पहले पीली पड़ी फ़सलों की तरह
डर से पीली पड़ गई है मेरी बुद्धि
जितनी यातनाएँ दी गईं
उतना नहीं था मेरा अपराध ।
महान देश की महान सेनाएँ
उसके सब ओहदेदार
सब कवचधारी
बँकरधारी
सब मन्त्री
उनके सिपहसलार
नक्षत्रों की गणना करने वाला पुरोहित
सब खड़े हैं मुस्तैदी से मेरे ख़िलाफ़
चाहतें हैं बन्दी बनाकर ले जाना अपने देश
मेरी जीभ में कील ठोककर मेरा सच जानना चाहते हैं
मेरे हाथों और घुटनों को जकड़कर
कहते हैं — निष्पक्ष लड़ रहे हैं वे युद्ध
उनकी भीषण यन्त्रणा से भयभीत हूँ मैं ।
हाज़िर होती है मेरी पुरखिन
गर्म सलाखों से दागी गई हैं उसकी आँखें
जहग-जगह से तोड़ दी गई हैं उसकी हड्डियाँ
पपड़ाये होंठों से कहती है –
‘’सबको बतलाओ हमारा सच’’
काँपते हाथों से युद्ध-विजयी होने का आशीर्वाद देती है
कहती है –जाओ, धरती पर फैले विषैलेपन को
अपनी बेड़ियों में गूँथ लो
अकेले नहीं हो तुम
वे हाथ कटी औरतें हैं साथ मोर्चे पर
जाओ, उनके विचारों को तेज़ धार दो
जैसे शत्रु अपने हथियारों को दे रहे हैं ।
नीन्द से बाहर निकलो
स्वप्न में नहीं हक़ीक़त में चल रहा है यह युद्ध
भर लो अपने भीतर बौखलाहट
पटक दो दिवार से अपना सिर
पागल हो जाओ
रुके न तुम्हारे विचारों का यह काफ़िला ।
अब उनीन्दे देवताओं के भरोसे
नहीं छोड़ी जा सकती यह धरा
अवसाद में डूबे प्रेम से उबरो
नींद से जागो ।
देवताओं, राजाओं और उनके प्यादों ने
अन्धकारमय कर दिया है पृथ्वी को
तुम किसी की प्रतीक्षा मत करो
अब बुद्ध नहीं आएँगे ज्ञान बाँटने
शान्ति बाँटने
दृढ़ करो अपनी एकता को
इकठ्ठा करो
ज्ञान बाँटने के आरोप में मारे गए लोगों को
वे बढ़ाएँगे तुम्हारा उत्साह
तुम्हारी सँकल्पना शक्ति को भी ।
अब किसी ईश्वर के वरदान के लिए मत भटको
वे दाख़िल हो गए हैं हमारी नीन्द में
हमारे बच्चों के स्वप्न में
पड़ गया है पहरा
जँगल से निकलकर भाग रही हैं हिरनियाँ
और उनके दुधमुँहे बच्चे
फूलों का पराग छोड़
उड़ी जा रही हैं मधुमक्खियाँ
इसके पहले कि शहद में न बचे मीठापन
बच्चों के स्वप्न में कोई जड़ दे साँकल
जाओ, रोशनी की नदियाँ तैर जाओ ।
अचानक ओझल होती है
पपड़ाये होठों वाली
जर्जर नाव-सी हमारी पुरखिन
टूट गया है नीन्द का तिलिस्मी युद्ध
मैं अपनी जीभ छूती हूँ
नीन्द में घायल अपने पाँव देखती हूँ
कि इस युद्ध ने बदल दी है
एक कवि की दिशा ।