जहाँ कभी जमती थी
पंचों की खैनी
कहाँ गए, बंधु, नीम-पीपल पुश्तैनी
गये-दिनों गुज़र गई
पुरखों की देहरी
चौखट पर बैठी है
बूढ़ी दोपहरी
पूछे अब कौन यहाँ गुड़-चना-चबैनी
गलियों में फिरती हैं
सिरफिरी हवाएँ
इस अँधे सूरज को
किस जगह बिठाएँ
चलती हैं सभी ओर जब छुरियाँ पैनी
पोखर के आसपास
छल हैं रेतीले
मन्दिर में देवों के
चेहरे हैं पीले
सोच रहे - कहाँ गई स्वर्ग की नसैनी