नीलाभ हुआ है प्रेम रंग (कविता) / गीता शर्मा बित्थारिया
सृष्टि के अवधाहन से ही
नीलाभ हुआ है प्रेम रंग
नभोनील सा असीम अगम्य
नीलसिन्धु सा अथाह गहन
नीलवर्णा ने स्वयं वरा है
दिगम्बरी परम पुरूष को
नेहपाश में बांध लिया है
निग्रही सा नीलाम्बर को
नीलम्बरी नवपरिणिता देती
नेह निमंत्रण नवल प्रेम का
अनुरागी हृदय से निसृत
नील गगन को प्रणय निवेदन
नीलधरा की पर्णकुटी पर
विहान का विहंगम वितान है
निसर्ग प्रेम का नीड़ बना है
नील गगन के अनंत पटल पर
कितने ग्रह उपग्रह प्रेमानुरागी हैं
इस नीले सुरम्य तारपथ पर
प्रेम विवश परिभ्रमण करते हैं
ना जाने कितने तारामंडल
ना जाने कितनी नभ गंगा
कितनी विस्तृत निहरिकायें
अनंत काल से निहार रही हैं
नीलाम्बर का ये प्रेम समर्पण
नीलवधू तो नेही कंत की
अनुपम अनुषंगिनी है
नील गगन भी नेहधरा का
अभिसारी सा नायक है
परिणय की मंगल बेला में
नभ का नवनीत नेह नवल
प्रियतम का प्रणय प्रतिबिंबित
नीलसिन्धु की लहरों में
नीले अवगुन्ठन के पीछे से
प्रेयसी के विस्मित नीलकमल
निराकार सत चित आनंदित
मनवल्लभ को ताक रहे हैं
अतरंग सखि अन्तरिक्ष की
नेह नदी की अविरल धारा
स्वअस्तित्व सम्पूर्ण समर्पित
अतल नभ के महासागर में
तरंगदैर्घ्य का नीला विस्तारण
अलौकिक प्रेम का प्रसार है
जितना गहरा उतना ही नीला
शाश्वत प्रेम का प्रेश्ठ प्रभाव है
प्रेम कस्तूरी से महके रहे हैं
नभ तारे और सागर जल
प्रेम करे सो ही तो जाने
गहन गोपन प्रेम के पंथ
गुरुत्वाकर्षण स्वयं प्रेम को
नील धरा का सहज भाव
निर्मल निस्पृही निर्वाणी सा
नभोनील का वरद दान
नभ की लालित्य लालिमा देख
वसुन्धरा हर्षित हरियाती है
लाल और हरे का सम्वियन से ही
दिव्य प्रेम रंग नीलाभ हुआ है
स्वयं सिद्ध है दृष्टि द्रष्टा का
दिव्य मिलन सदैव ही अद्वैत है
अपरंपार प्रेम की गोपन सीमायें
क्षितिज तक प्रस्तावित हैं
नभोनील के प्रेम परावर्तन से
धरती का आंगन नीला है
सात्विक स्नेह पर परम वैराग्य का
नैसर्गिक सौंदर्य आच्छादन है