Last modified on 11 फ़रवरी 2011, at 12:05

नील की हंस-नौका / दिनेश कुमार शुक्ल

तुम्हारा इतना गम्भीर और दीर्घ मौन
ठीक नहीं
अनास्तासिया !
कुदसिया !
सुतपा !
तुम्हारी चुप्पी के ताप से
अब पिघल चले हैं शब्द
आग लगने ही वाली है भाषा में
सिर्फ़ आँखों ही आँखों
इतना कुछ कह जाना ठीक नहीं...
स्त्रियों की आँखों और खुले बालों से
डरते हैं धर्म और साम्राज्य...

ये धुआँ ये लपटें विस्फोट आर्तनाद
साइरन सन्नाटा
जल रहे हैं पैपिरस
जल रहे हैं कमल
नील का तल
इधर से बड़वानल उधर से दावानल,
आओ पानी पर चलकर, बचाओ
नील के जल पर तैरती हंस-नौका को
अनास्तासिया !
कुदसिया !
सुतपा !
लेबनान के देवदारू से निर्मित
इस हंस-नौका में कील काँटा कुछ नहीं
लताओं से कसकर बाँधे बैठाए गये जोड़ सब
यही पार करेगी वैतरणी
दज़ला-फ़रात के विस्फोटक पानी के पार
यही जाएगी
तैरेगी सूर्य के उफनते कड़ाह में
इसे डूबने मत देना
पाल राब्सन के उत्तराधिकारियों,
तुम्हारी मिसीसिपी भी
डगमग डगती-डगती
गोद लेकर झुलाएगी हंस-नौका को,
अंक भर कर
ज्यों प्रथम नवजात को माँ षोडशी
थरथराती उतरती मातृत्व में...
यह नौका
धातुओं की हिंसा से अछूती है

सँभालना इस हंस-नौका को
अपनी आँखों के जल में भी
डूबने मत देना इसे
क्योंकि इसी पर बचा कर
रखे जाएँगे जीवन के बीज सब,
अनास्तासिया !
कुदसिया !
सुतपा !
अपनी आँखों को डबडबाने मत देना
क्योंकि सबसे गहरा समुद्र आँसुओं का ही होता है।