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नील गगन में घन कजरारे फिर घिर-घिर आये / रंजना वर्मा
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नील गगन में घन कजरारे फिर घिर-घिर आये।
तू ही बता पवन क्यों बैरी सजन न घर आये॥
छेड़ उठी सावनी घटा
सांवली धरा विहँसी,
मंजुल सर का मुकुर देखने
कंज कली विकसी।
खिल खिल उठे कमलिनी पर क्यों भ्रमर न फिर आये।
तू ही बता पवन क्यों वैरी सजन न फिर आये॥
कितनी बार जुही की कलियाँ
खिल कर मुरझाईं,
रजनीगंधा जगी रात भर
किंतु न सुधि पाई।
सूनी सूनी राह अतिथि प्रिय नजर न फिर आये।
तू ही बता पवन क्यों बैरी सजन न फिर आये॥
अर्द्ध रात्रि नीरव रजनी
बरसे मधु भीने फूल,
भरी भरी नयनों की नदिया
डूबे दोनों कूल।
मादक बहे बयार बटोही इधर न फिर आये।
तू ही बता पवन क्यों बैरी सजन न फिर आये॥