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नूतन पूर्वांचल के आलोक से / रामइकबाल सिंह 'राकेश'

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लगा सत्य कुमकुम बिखेरने
सहज प्रफुल्लित वसुधानन पर,
पर न हो सका बोध अर्थ का
युग-युग से पाकर भी उत्तर।

कालपुरुष के पृथु ललाट पर
अरुणोदय मानव-जीवन का,
बना आद्य उन्मेष शक्ति का
भावसृष्टि के अभिव्यंजन का।

उदय साधना का जीवन में
विश्व विलोचन दर्शन का फल,
दग्ध अग्नि से अन्तस्तल ही
सर्वयज्ञफलप्रद तीर्थस्थल।

वही केन्द्र अणिमा है जो
भूमा बन जाता होकर विस्तृत,
एक केन्द्र के परिमण्डल में ही
विराट-वामन इति-निश्चित।

लिंगों, वचनों, विभक्तियों में
बनती-मिटती परिधि निरन्तर,
सर्वकाल में सदा एक रस
रहता केन्द्र बिन्दु मंगलकर।

परिधिरूप में नहीं केन्द्र की
हो सकती अथ-इति-निर्धारित,
आदिपुरुष का एक अल्प क्षण
कोटि-कोटि वामन या परिमित।

नहीं कल्पना है, कवित्व है
यह विज्ञान दीप्त अनुभव है,
एक अखण्ड समष्टि-दृष्टि है
यह अविभक्त भाव-वैभव है।

पहचानें हम हिय-सरगम की
ग्राम-मूर्च्छनाओं को झंकृत,
होता रहता जिनसे गोपन
आत्मा का संगीत निनादित।

भूमण्डल का हृदयकमलदल
जल-जलकर प्रज्वल हो प्रज्वल,
समतामयी प्राणधारा से
प्रक्षालित दिग्स्वस्तिक का मल।

कल्पवृक्ष हो मातृभूमि का
प्रतिभा की किरणों से ज्योतित,
फूटें उसमें कर्म-सत्य के
कालप्रवर्त्तक अंकुर अगणित।

भावभूमिका में मानस की
तृष्णाभ्रमरी करे न विचरण,
लिप्साओं की मृगमरीचिका से
दिग्भ्रान्त न हो मानव-मन।

हो ध्रुवबिन्दु न जन संस्कृति का
चंचल मलिन अनृत से सनकर,
प्राणदयायिनी किरणावलि से
तमोयवनिका हटे भयंकर।

बढ़ें केन्द्रबल से विरहित जन
शिवमयता की ओर चिरन्तन,
सर्वकालव्यापिनी दृष्टि से
निखिल ज्ञान का कर आलिंगन।

तिमिरधूम का कलुष अमंगल
दिशा-दिशा के केशपाश पर,
हिंसा का उद्गम विध्वंसक
जड़ विज्ञान मृत्यु का किंकर।

बहिरन्तः पुरद्वार हृदय का
धधकता दारुण ज्वालानल,
दृग-परिसर परिव्याप्ततिमिर से
मदोन्मत्तता का कोलाहल।

हो चैतन्य रूप अम्बर में
उदय प्रेम का ज्वार लहरमय,
मुक्त वासना-बन्धन से मन
वीतराग आनन्द अमृतमय।

ऋजुभावों का वृहत् वर्णपट
पùरागमणि-सा आलोकित,
बने सुवर्चस स्वरव्य´्जनमय
मानदण्ड जीवन का निश्चित।

स्रोत प्राण का हो स´्चारित
अन्तर्मन के दिव्य फलक से,
फटे ज्ञान-रवि की पहली पौ
अनन्तत्व की एक झलक से।

परमव्योम से गरुड़ अर्थ का
उतरे वसुधा पर उड़ान भर,
दिग्विराट को पंखों से धुन
अमृतकुंभ ले मृत्युतिमिरहर।

हो अनन्त में मग्न दग्ध कर
कर्मग्रन्थियों को प्रबुद्ध मन,
बुझ जाता है जैसे दीपक
तेल जला कर बुझने के क्षण।

जीवन का संगीत काव्यमय
चित्स्वरूपता से परिभावित,
अखण्डता के एक नियम में
हो शतधा अनेकधा छन्दित।

करे ऊर्ध्वपथ पर आरोहण
अनलशिखा-सी बुद्धि अकलुषित,
हो सम्यक अनुभूति ज्ञान की
जीवन में कालुष्य से रहित।

धु्रव प्रतीति की व्याहृति से हो
सृष्टिपणव के धनु का विघटन,
ऋतम्भराप्रज्ञा का दर्शन
विद्याओं का बने आयतन।

संकल्पों का करे अतिक्रमण
दुश्चिकित्स्य मन विजिज्ञास्य बन,
दिव्यज्योति दे लोकचक्षु को
मौलिक तत्त्वों का परिशीलन।

अन्तर्गरिमा की गुरुवाणी
लोकचेतना को जाग्रत कर,
मन्त्रवर्ण दे वेदितव्य
अनिरुक्त व्यंजना को निगूढ़तर।

निखिल धरा की हो अक्षय निधि
मानव-जीवन का अमूल्य क्षण,
रहे आयु का यज्ञ अखण्डित
जन मंगल का हव्य कर ग्रहण।

सर्वभूतमय विश्वरूप का
आत्मबोध से कर अनुशीलन,
हो विद्या की रश्मिकला से
भेदभावनातम का नियमन।

अति चेतनता में लोकोत्तर
व्यष्टिचेतना का हो विलयन,
बने नियामक बिन्दु प्रेम का
नित्य नित्य मंगल का चिन्तन।

श्रेयकामना की मति गति दे
काल सूर्य के मुख में प्रहसित,
अचित तत्त्व के तममण्डल को
भुवन कोश में अन्तर्गर्भित।

शशि की पूर्ण कला से क्षारित
सुधा-सिन्धु का एक दिव्य कण,
पराशिक्ति से जन-मन को भर
आत्मज्योति का करे प्रसारण।

अग्निपूत आदित्यचक्षु से
धधका ऊर्जा भीतर-बाहर,
दूर करें दुरितों को हमसे
ध्येयाकार वृत्तियाँ भास्वर।

सविता का आलोक ग्रहण कर
जीवन का रथ सर्व शक्तिमय,
तिरोभाव से परे, प्रकाशित
देवयानपथ पर हो गतिमय।

उठे गन्ध चिन्तन की हवि से
गगनदेश में तारों को भर,
युग-युग की श्रद्धा के अंकुर
फूटें अन्तर की वेदी पर।

परे प्रकृति से तेज हिणमय
त्रिभुवमय स्वरूप से चेतन,
जग की स्फुरणाओं से विरहित
भरे प्राण में कम्पन गोपन।

प्राणों के सागर से विस्तृत
सौरतेज को कर आकर्षित,
खिले उदय का कमलमुकुल नित
अन्तर में किरणों से मण्डित।

मनःक्षेत्र में भूति और श्री
प्राण सोम का करें विसर्जन,
चिन्तन में अभिव्यक्त हो उठे
आत्मनिवेदन का गायन-स्वन।

शक्तितत्त्व का सर्वगन्धरस सिन्धु तरंगित,
जड़-चेतन जग में अनन्तयोजन परिविस्तृत।
शिव संकल्पों का अधिपति मेरा वैश्वानर-
अमृतभर्ग से मिले सहज एकत्व प्राप्त कर।

महाव्योम-सा व्याप्त चतुर्दिक अन्तर्भावित,
कुसुमित प्रातर्वेला में, सन्ध्या में मुकुलित।
भुवनकोश का नाभिकमल करता विकीर्ण नित,
जीवन का स्वर्णिम पराग मधुगन्ध समन्वित।