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नृत्यमय जगत / स्वरांगी साने

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(1)

कभी देखा है किसी को सौरंगी (सारंगी) बजाते हुए
लगता ही नहीं
सौरंगी बज रही है
देह से सटी होती है सौरंगी
और लगता है देह बज रही है।

सौ रंगों को एक साथ गूँथ लिया है उसने
पूछते हैं –कोई अच्छा सौरंगी बजाने वाला है
नाम आता है उसका
जिसने मांझ लिया है गज<ref>बो, जिससे सौरंगी को बजाया जाता है</ref> को देह के साथ
सेतु बन गया है गज
जिससे
उसकी देह के पार की यात्रा शुरू हो गई है।

(2)

तबले पर थिरक रही हैं
अंगुलियाँ
चेहरे पर मुस्कान
यह ‘स्व’ का आनंद है
जो उसे बना रहा है ‘तबलची’ से ‘तबला नवाज़’
‘झपताल’ के
‘धी ना धी धी ना’
का लड़कपन है
तो ‘धमार’ का
‘क धि ट धि ट धाs’
का संयत भाव भी।
इस ‘धा’ पर सम<ref>प्रत्येक ताल की पहली मात्रा। इसी से प्रारंभ होता है, इसी पर अंत</ref> आई है
गर्दन हिला कर बता रहा है वह
और इस ‘तिरकिट’ पर
घूमी हैं अंगुलियाँ
उसकी गर्दन और चेहरे का स्मित हास्य भी

क्या है ऐसा
जो तबला बजाते हुए
उसे आनंदित कर रहा है
नाच रहा है उसका
ऊर्ध्व शरीर
ऊर्ध्व की ओर हो रही है उसकी गति
उसके लिए यह मोक्ष का सोपान है।

(3)

‘मुख मोर-मोर मुस्कात जात’
गा रही है गायिका मालकौंस<ref>रात्रि के अंतिम पहर का एक राग</ref> में
अर्र्धनिमीलित हैं उसकी आँखें
शब्दों से नहीं
तान के उतार-चढ़ाव से
बदल रही हैं उसके चेहरे की
भाव-भंगिमाएँ
यदि इसकी जगह वह गाती
‘ठुमक चलत रामचंद्र’
तब भी उसके चेहरे पर वही शांत भाव होता
जो
‘भोर भई अब आए हो, रैन कहाँ बिताई’
गाते हुए होता।

गायिका को न शब्दों का उपालंभ चाहिए
न उनके अर्थों की व्यंजना
उसके लिए शब्द से भी ज़्यादा ज़रूरी है
स्वर, आरोह-अवरोह
वह स्वरों में खो रही है
वही है उसका परमानंद, उसका मोक्ष।

(4)

सितार के मिज़राब5
अँगुलियों में अँगूठियों की तरह पहने हैं
खींच-खींच कर बजाई जाती है सितार
एक विशिष्ट आसन में बैठकर
और खुद ही मुँह से निकलता है ‘क्या बाsत’
यह उस तार के खींचने का उन्माद नहीं होता
न ही यह होता है उस तुंबे<ref>पीछे का गोलाकार गुबंद</ref> का स्पंदन
उस झाले<ref>द्रुत गति से बजाना, आमतौर पर इससे समापन किया जाता है</ref> पर भी नहीं कही गई होती है यह बात

यह उस क्षण को जी लेने का आनंद होता है
जिसे जिया होता है
उसने अभी
खुद को खोते हुए।
 
(5)

… और
और देखा है मुरली बजाते हुए उसे
शरीर पर कितने वक्र पड़ते हैं
पर कितने प्यार से बजाता है वह बंसी
नीरव शांति का रहस्य
क्या केवल कृष्ण जानता है?
नहीं
वह भी जानता है
जो बैठकर बजाता है बाँसुरी
और खो जाता है निराकार में।

(6)

इन सबके साथ
तो कभी अकेले ही
नाचती है नर्तकी
उसकी आँखें बंद नहीं होतीं
हर क्षण की सजगता उसके साथ होती है।

आमद<ref>प्रारंभ</ref> का ‘धात कथुं गाs’
करते हुए वह अभिनय करती है
साकार कर देती है शिव-पार्वती।
वह
हर शब्द के भाव को पकड़ती है ऐसे
जैसे कि उस शब्द का वही अर्थ हो
‘लाली मेरे लाल की’ कहते हुए वह अपने लाल-गोपाल को दिखाती है
तो सूर्य की और होठों की भी लालिमा दिखा देती है

उन छोटे-छोटे बोल-टुकड़ों को
वह इतने प्यार से बरतती है
जैसे पैरों से निकाल रही हो मक्खन
दूसरे ही क्षण किसी कवित्त<ref>काव्यमय रचना जिसे ताल-लय में पिरोया गया हो</ref> में
वह राधा बन छीन ले जाती है बाँसुरी

एक ही बार में वह
क्या-क्या करती है
उलाहना देती है
तो कभी बिनती करने लगती है
‘मोहे छेड़ो न कन्हाई’

वह नृत्य करती है
देखती है तबले की ओर
होती है तबले और घुंघरुओं की जुगलबंदी
पखावज के नाद में रमण करती है
स्तब्ध हो जाता है वह क्षण
तभी वह देखती है सौरंगी को
और एक टीस सीधे
उसके दिल को चीर जाती है
तानपूरे से भरती है
वह पूरा व्योम
तानपूरे पर चलती चार अँगुलियों से
चार चरणों को पार कर जाती है

बाँसुरी की तान में
वह करती है एक पल को आँखें बंद
शुरू होती है भैरवी<ref>सर्वकालिक राग पर आम तौर पर अंत में गाया जाता है</ref>
खोल देती हैं आँखें तुरंत।

अहीर भैरव<ref>दिन के प्रथम पहर का राग</ref> के साथ
सुबह की उजास
उसके चेहरे पर होती है
दमकती है वह
दमकता है नृत्य
ताल-लय स्वर
और सारे साज़-साज़िंदे
वह पूर्ण परिक्रमा करती है
परिधि पर एक ओर
खड़ी हो जाती है पृथ्वी
पृथ्वी के कक्ष में घूमने लगती है नर्तकी
नर्तन हो जाता विश्व
कीर्तन हो जाता है संसार
जहाँ कुछ विषम नहीं होता
सब सम हो जाता है
‘सम’ पर विराम पाता है।

शब्दार्थ
<references/>