भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
नृत्य / शुभा
Kavita Kosh से
याद नहीं है
जाने कहाँ से मिल गए थे हमें घुँघरू
खूब बड़े नाड़े में पिरोए हुए
उन्हें बाँधकर हमारे पैर लगते थे
बिल्कुल नर्त्तकियों के पैरों जैसे
हम चक्रवात की तरह घूमे
और पक्षियों जैसी उड़ाने लीं हमने
हम अपरिचित थे
नृत्य के तमाम शास्त्र से
लेकिन हम जो कर रहे थे
वह नृत्य ही था।