नेम प्लेट / अनीता सैनी
मुख्य द्वार पर लगी
नेम प्लेट पर उसका नाम है
परंतु वह उस घर में नहीं रहता
माँ-बाप,पत्नी; बच्चे रहते हैं
हाँ! रिश्तेदार भी आते-जाते हैं
कभी-कभार आता है वह भी
नेम प्लेट पर लिखा नाम देखता है
नाम उसे देखता है
दोनों एक-दूसरे को घूरते हैं
कुछ समय पश्चात वह
मन की आँखों से नाम स्पर्श करता है
तब माँ कहती-
“तुम्हारा ही घर है, मैं तो बस रखवाली करती हूँ। "
पत्नी देखकर नज़रें चुरा लेती है
और कहती है -
“एक नाम ही तो है जो आते-जाते टोकता है।”
वह स्वयं को विश्वास दिलाता है
हाँ! घर मेरा ही है
बैग में भरा सामान जगह खोजता है
साथ ही फैलने के लिए आत्मविश्वास
ज्यों ही परायेपन की महक मिटती है
फिर निकल पड़ता है उसी राह पर
सिमट जाना है सामान को उसी बैग में
कोने, कोनों में सिमट जाते हैं
दीवारें खड़ी रहती हैं मौन
चप्पलें भी करती हैं प्रश्न
नेम प्लेट पूछती है कौन ?
पहचानता क्यों नहीं कोई ?
डाकिया न दूधवाला और न ही अख़बारवाला
कहते हैं - "सर मैम को बुला दीजिए।"
स्वयं को दिलासा देता
"हाँ! मेरा नाम चलता है न। "
सभी नाम से पहचानते हैं मुझे
स्वयं पर व्यंग्य साधता
हल्की मुस्कान के साथ
कहता-“घर तो मेरा ही है!
हाँ! मेरा ही है! परंतु मैं हूँ कहाँ ?"