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नेरू आ पड़रू / चन्द्रनाथ मिश्र ‘अमर’

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भागमनत गिरहस्तक खुट्टा पर नेरू आ पड़रू
कोना रहै छल, तकरे खिस्सा लियऽबटुक सब दड़रू।
एक गाय आ एक महिंस छल तथा बड़द दू गोट,
ताहिबीच जन्मल छल नेरू आ पड़रू अति छोट।
गाय महिंस जा बाध चरै छल हरियर कोमल घास,
बड़द दुनू जोतनि गिरहस्तक मिलि तीसो दिन चास।
नेरू पड़रू पड़ल पिबैछल अपना मायक दुग्ध,
कूदय फानय नेरू, पड़रू देखि रहै छल मुग्ध।
एकसर कूदब नीक लगै नहि तेँ रखलक प्रस्ताव
हमरे संगे कूदह मीता हम न मानबह आब।
कूदऽमे आनन्द अबैछै फानऽ मे उत्साह,
फरहर देह करह, घर छोड़ह, करह न व्यर्थ तबाह।
पड़रू सुनि प्रस्ताव मनहिमन किदन-कहाँदन गुनलक,
पटपटाय दुहुकान पड़ल रहि, आँखि अपन पुनि मुनलक।
मन रहलै अलसयले, कूदब बुझि पड़लैक पहाड़,
उठय पड़त से सोचि कापि उठलै भरि देहक हाड़।
बाजल-सुन रे मीता तोरा की उठलौ ई उमकी
कूदि-फानि कऽ देखा रहल छेँ अपना देहक चुमकी।
लगतौ ठेस कतहु तँ खसबेँ चारूनाल चितंग,
घोल अनेरे उठतौ सब दिस मीता अछि अवढंग।
हमर बात सुन, बैसि एकठाँ हम पटपटबी कान
के कतेक पटपटा सकल अछि राखी तकर ठेकान।
जे जीतय तकरा गरदनिमे घण्टी पड़य इनाम,
जे हारय तकरा इनाममे कौड़ी तीन छदाम।
अपन-अपन प्रस्ताव समर्थन भेल न एक्को केर,
पड़रू रहल पड़ल आ नेरू कूदऽ लागल फेर।
नेरूकेँ देखथि फनैत कोम्हरहुसँ आबि गृहस्थ,
दिन-दिन बढले जाइत क्रमशः होइत जाइत स्वस्थ।
घण्टी आनि लाल डोरीमे गँथलनि भेल प्रसन्न
बन्हलनि नेरू केर गराँ मे बाजल-टन-टन-टन्न।
बैसल पड़रू पर गेलनि पुनि जखन गृहस्थक ध्यान,
छै कौड़ीक एक छर घरमे जो रौ झिङुरा! आन
पड़रूओकेँ बान्हि दही जे ईहो लागय नीक,
सुनितहि नेरू जानि बूझि कऽ देलक पटदऽ छीक।
बाजल नेरू-कहरे मीता! भेटलौ कोन इनाम
दुनियाँमे एहने होइत छै अलास्यक परिणाम।
जँ चाही देशक उन्नति तँ कऽ आलस्यक त्याग
करी काज जीवनमे, तखने बाँजत माथक पाग।

(‘बटुक’ सचित्र कथा विशेषांक, 1765)