भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
नेह का नीर बनकर / चन्द्रेश शेखर
Kavita Kosh से
नेह का नीर बनकर मिलो तो सही
तुमको मेरे नयन बढ़ के' अपनाएँगे
गर्द अनुभूतियों पर जमी रह गई
जिंदगी में तुम्हारी कमी रह गई
ग्रंथि संकोच की खुल न पाई कभी
रात इक दरम्याँ शबनमी रह गई
रिक्तियों में समर्पण भरो तो सही
ज़ख़्म रिश्तों के सब खुद ही भर जायेंगे
भाव सोते रहे,शब्द रोते रहे
गीत बन-बन के' निज अर्थ खोते रहे
मन की माला न हमसे कभी गुँथ सकी
टूटे धागे में सपने पिरोते रहे
प्रेम का गीत बनकर खिलो तो सही
तुमको मेरे अधर झूम कर गायेंगे
तोड़ना है गलत फहमियाँ तोड़ दो
छोड़ना है तो शिकवे-गिले छोड़ दो
जिनमें संचित हुआ अब तलक बस गरल
आओ मिलकर हृदय विष कलश फोड़ दो
प्रेम का एक विनिमय करो तो सही
योग और क्षेम समतुल्य हो जायेंगे