नेह की जलती चिता से / जयशंकर पाठक 'प्रदग्ध'
नेह की जलती चिता से, अधजला लेकर समर्पण,
हम बनारस घाट' गंगा, में बहाने जा रहे हैं।
प्रेम के हिमखण्ड कितने, गल गए, गलते रहेंगे।
ज्योति पर मोहित फतिंगे, जल गए, जलते रहेंगे।
धार नदिया की तटों को, छल रही, छलती रहेगी।
ये हवा! सदियों पुरानी, चल रही, चलती रहेगी।
प्रेम के अनुबंध का कर, आँसुओं से आज तर्पण,
हम इलाहाबाद' सङ्गम, में नहाने जा रहे हैं।
नेह की जलती चिता से, अधजला लेकर समर्पण,
हम बनारस घाट' गंगा, में बहाने जा रहे हैं।
कुछ न बोलेंगे किसी से, मौन ही अब साधना है।
'बोल देना है उचित' ये, व्यर्थ की परिकल्पना है।
ठूँठ वृक्षों से धरा पर, पुष्प बोलो कब झरे हैं?
छिद्र हो यदि मध्य तल के, तो कलश वे कब भरे हैं?
आज ही कुलदेवता को, कर सभी शृंगार अर्पण,
हम जवानी भी विधुर, बन कर बिताने जा रहे हैं।
नेह की जलती चिता से, अधजला लेकर समर्पण,
हम बनारस घाट' गंगा, में बहाने जा रहे हैं।
खैंर की खूंटी, पलासी जड़, हमारा भी वचन है।
श्वास की हर एक गति को, आँसुओं से आचमन है।
जा रहे हैं हम मिलन के, क्षण विदाई-गान होकर।
ज्यों किसी की देह से, उतरा हुआ परिधान होकर।
मुट्ठियों में भर समय की, क्रूरता का आज क्षण-क्षण,
हम किसी घनघोर जंगल, में छिपाने जा रहे हैं।
नेह की जलती चिता से, अधजला लेकर समर्पण,
हम बनारस घाट' गंगा, में बहाने जा रहे हैं।