नैकुहूँ न दरद करति, हिलकिनी हरि रोवै / सूरदास
राग सारंग
(माई) नैकुहूँ न दरद करति, हिलकिनी हरि रोवै ।
बज्रहु तैं कठिनु हियौ, तेरौ है जसोवै ॥
पलना पौढ़ाइ जिन्हैं बिकट बाउ काटै ॥
उलटे भुज बाँधि तिन्हैं लकुट लिए डाँटै ॥
नैकुहूँ न थकत पानि, निरदई अहीरी ।
अहौ नंदरानि, सीख कौन पै लही री ॥
जाकौं सिव-सनकादिक सदा रहत लोभा ।
सूरदास-प्रभु कौ मुख निरखि देखि सोभा
भावार्थ :-- (एक गोपी कहती है-) `सखी ! तनिक भी पीड़ा का तुम अनुभव नहीं करती हो ? (देखो तो) श्याम हिचकी ले-लेकर रो रहा है । यशोदा जी ! तुम्हारा हृदय तो वज्र से भी कठोर है । जिसे पलने पर लिटा देने पर भी तीव्र वायु से कष्ट होता है, उसी को हाथ उलटे करके बाँधकर तुम छड़ी लेकर डाँट रही हो ? तुम्हारा हाथ तनिक भी थकता नहीं? (सचमुच तुम) दयाहीन अहीरिन ही हो । अरी नन्दरानी ! यह (कठोरता की) शिक्षा तुमने किससे पायी है ?' सूरदास जी कहते हैं कि मेरे जिस प्रभु का दर्शन पाने के लिये शंकर जी तथा सनकादि ऋषि भी सदा ललचाते रहते हैं । (माता) तुम उनके मुख की शोभा को एक बार भली प्रकार देखो तो सही ! (फिर तुम्हारा क्रोध स्वयं नष्ट हो जायगा ।)