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नैना मानत नाहीं, मेरे नैना मानत नाहीं / भारतेंदु हरिश्चंद्र
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नैना मानत नाहीं, मेरे नैना मानत नाहीं।
लोक-लाज सीकर में जकरे तऊ उतै खिंच जाहीं॥
पचि हारे गुरुजन सिख दै कै सुनत नहीं कछु कान।
मानत कह्यौ नाहिं काहू को, जानत भए अजान॥
निज चबात सुनि औरहु हरखत, उलटी रीति चलाई।
मदिरा प्रेम पिये पागल ह्वै इत उत डोलत धाई॥
पर-बस भए मदन-मोहन के रंग रँगे सब त्यागी।
’हरीचंद’ तजि मुख कमलन अलि रहैं कितै अनुरागी॥