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नैनीताल की पत्र-प्रतीक्षा / शिवबहादुर सिंह भदौरिया

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मैं प्रतीक्षा में तुम्हारे पत्र की, बैठा हुआ हूँ
ढल गया हालाँकि दिन
काला अँधेरा घिर रहा है।
इन पहाड़ों का सलोनापन कभी वर्णन करूँगा,
जब अनूठा शायराना रंग आँखों में भरूँगा;
इस समय तो पात चिकने चीड़ के उठ-गिर रहे हैं,
यह तुम्हारी दृष्टि के असफल नकल सी कर रहे हैं;
फूल-कलियों को झुलाता
झूलता चलता पवन यह,
हृदय को झकझोरने में-
सच, बहुत माहिर रहा है।

बेमुड़े मेरी तरफ चिट्ठीरसाँ ने की तयारी,
खीझ, झुँझलाहट, निराशा और बेहद बेकरारी
तय किया तुमसे न बोलूँगा, मिला भी यदि अचानक,
मोड़ लूँगा मुँह, न लूँगा दर्द फिर ऐसा भयानक,
दूर तक कमुछ घूम फिर कर
भूल जाऊँगा गमों को,
तैश मेरी आँख में अब, अश्रु बन-बन-
तिर रहा है।

दो कदम चलकर इरादों ने नया ही गुल खिलाया,
क्यों न बैठूँ? फिर न सोचूँ, फिर न आखिर पत्र आया;
भूख-रोजी, काम-धन्धे, जब-कुण्ठा सब खड़े हैं,
मुए बरसों-से सभी के वक्त के पीछे पड़े हैं;
क्या पता मजबूर होकर ही
न कुछ भी बन पड़ा हो,
दूर का मसला किसी को ही कहाँ-
जाहिर रहा है।

सब समझकर भी न जाने बेखबर क्यों डालता हूँ?
और बारम्बार थककर कागजों को खोलता हूँ;
लो, बहुत अच्छा हुआ जो पत्र पिछला मिल गया है,
पट अनेकों बार मुरझा मन अचानक खिल गया है;
दे दिलासा, धैर्य, साहस,
आज तो समझा लिया है,
मन पुराने पत्र ही पर देर से-
चल-फिर रहा है।