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नैन-मन जब तैं आ‌इ बसे / हनुमानप्रसाद पोद्दार

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नैन-मन जब तैं आ‌इ बसे।
तब तैं आठौं जाम, दिवस-निसि, निमिषौ नाहिं खसे॥
सब के नैन प्रपंचहि निरखत, सब कें मन संसार।
इहाँ जगत आवन पावत नहिं, निरतत नंद-कुमार॥
ललित त्रिभंग पीत पट सोभित, गल गुंजन की माल।
मुकुट मयूर-पिच्छ, कुंचित कच, मृगमद-तिलक सुभाल॥
कर मुरली, कटि किंकिनि राजत, पग नूपुर-झनकार।
नील-स्याम-बदनारविंद पर काम कोटि सत बार॥
अधर मधुर मुसक्यान मनोहर, तिरछी चितवनि जाल।
मुनि-मन-बिहग अगय निरखि छबि आ‌इ ड्डँसत तत्काल॥
नित्य प्रकासित स्याम-सूर्य, तहँ जग-तम जात डराय।
दुस्साहस करि जाय कबहुँ जौ, बिनु मारें मरि जाय॥