भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

नैराश्य / पद्मजा शर्मा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


मेरे मन के दो टुकड़े हैं
एक हँसता है, दूसरा रोता है
आगे-पीछे नहीं
यह सब एक ही क्षण में संभव होता है

मुस्करा ही रही होती हूँ कि
ठीक इसी पल आँखों में
उदासियों का जल हिलता है
पीड़ा का कोई फूल धीरे-धीरे खिलता है

मैं उत्साह के समंदर में भरपूर ऊर्जा के साथ
डूबने को होती हूँ
कि सामने नैराश्य का दलदल मिलता है

यह मेरे ही साथ होता है
कि औरों के साथी भी होता रहता है

ऐसा क्यों होता है
कि जीवन धीरे-धीरे बढ़ता रहता है और जीवन रस
तेज़ी से घटता जाता है
उम्र भागती-हांफती रहती है
और हर सपना चुपचाप दम तोड़ता रहता है।
कौन है जो
मेरी किताब का हर पन्ना
उमंग और जोश के साथ लिखता है
फिर बिन पढ़े ही मोड़ता रहता है
आशा-निराशा की डोर किस के हाथ में है

कौन जाने मैं मृत्यु के पास हूँ
कि जीवन मेरे साथ है।