भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

नैहर आए / कमलेश

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

घूँघट में लिपटे तुम्हारे रोगी चेहरे के पास
लालटेन का शीशा धुअँठता जाता है
साँझ बहुत तेज़ी से बीतती है गाँव में ।

भाई से पूछती हो -- भोजन परसूँ ?
वह हाथ-पाँव धोकर बैठ जाता है पीढ़े पर
--छिपकली की परछाईं पड़ती है फूल के थाल में ।

आँगन में खाट पर लेटे-लेटे
बरसों पुराने सपने फिर-फिर देखती हो
--यह भी झूठ !
महीनों हो गए नैहर आए ।

चूहे धान की बालें खींच ले गए हैं भीत पर
बिल्ली रात भर खपरैल पर टहलती रहती है
माँ कुछ पूछती है, फिर रूआँसी हो जाया करती है ।