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नोनोॅ रोॅ दाम / नवीन ठाकुर 'संधि'

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हम्में गंवारू गाँवोॅ में रहै छीं दिनरात,
घाठोॅ-गुढ़ोॅ, साग सत्तु खाय छी मांड़-भात।

हम्में लंगोटिया कहावै छी भोटिया,
शहरोॅ रोॅ बाबू सूटबूट पीन्ही कहावै नमधोतिया।
शौकिया बनी केॅ एक दिन गेलां बाजार
वहाँ सब्भै करै छेलै भिन्न-भिन्न विचार
शहरोॅ में केकरौ कोय नै दै छै साथ
हम्में गंवारू गाँवोॅ में रहै छीं दिनरात।

बड़ी हुलसी केॅ खैलां हम्में पान,
दाँत निपोरतें हमरोॅ गेलोॅ प्राण।
सौदा में घटी गेलोॅ नोनोॅ रोॅ दाम
नांेन नै देखथैं घरनी करलकोॅ तेरोॅ निनॉन
हाय रे विधाता! सगरो जिनगी कभाते-कभात।
हम्में गंवारू गाँवोॅ में रहै छीं दिन-रात।