नौ-सैनिक विद्रोह / महेन्द्र भटनागर
मचली हिन्द सागर में सबल विद्रोह की लहरें
हिन्दुस्तान को छूने चली आतीं बिना ठहरें !
जब बंगाल की खाड़ी, अरब सागर हिले डोले
सदियों के दमित सीने नया दृढ़ जोश पा बोले !
लेंगे छीन आज़ादी कि हममें शक्ति है इतनी,
लो प्रतिशोध युग-युग का कि ज़ुल्मों की कथा कितनी !
नौ-सैनिक चले मिलकर जहाज़ों को उड़ाने को,
भीषण गोलियाँ बरसीं गुलामी को मिटाने को !
‘गोरे’ आततायी सब छिपे डरकर सभी भागे,
दुश्मन कौन था जो आ सका बढ़ कर वहाँ आगे !
जन-जन मुक्ति-आन्दोलन मशालें जल उठीं अगणित,
पशु-बल जा छिपा उल्लू सरीखा बन भयातंकित !
नव-आलोक से सारी दिशाएँ जगमगायी थीं !
नूतन चेतना से सब दिवारें डगमगायी थीं !
धक्का शक्तिशाली जब लगा जन-तंत्र का नारा,
सागर पार सिंहासन गया हिल राज्य का सारा !
सड़कों पर पड़े अगणित क़दम फ़ौलाद से दुर्दम,
जाग्रत देश के जन-जन अथक लड़ते रहे हरदम !
कीं कुर्बानियाँ तुमने उठायी आँधियाँ भीषण
जिससे कट गये जकड़े गुलामी के सभी बंधन !
लपटें जल उठीं दुगनी, पड़ा जब-जब दमन-पानी,
औ’ प्रतिरोध भी दुगना बढ़ा, की ख़ूब मनमानी !
यह साम्राज्यवादी गढ़ विकल हो बौखलाया था,
जिसने शक्ति का कण-कण कुचलने में लगाया था !
लेकिन बुझ न पायी जो वतन ने आग सुलगायी,
बरसों की बढ़ी जिसमें पुरानी जुड़ गयी खाई !