भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
नौ बजे सुबह का एकालाप / लुइस ग्लुक / श्रीविलास सिंह
Kavita Kosh से
					
										
					
					नहीं हैं यह छोटी बात, आना इस 
मधुरता तक।  जीना 
उसके संग रहा बुखार सा बाहर से देखें तो
सोलह साल पूर्व। सोलह वर्ष मैं बैठी रही 
और करती रही प्रतीक्षा चीजों के बेहतर होने की। मुझे आती है हँसी। 
जानते हो तुम, मैं देखती रही स्वप्न कि मैं क्षीण कर दूंगी मृत्यु को 
या फिर वह होगा प्रेम में और मोड़ देगा मुहाना 
किसी अन्य की ओर।  अच्छा, मैं मानती हूँ उसने ऐसा किया। 
मैंने सोचा, मैंने महसूस की एक अनुपस्थिति, और आज उसने छोड़ दिया 
उबला हुआ अंडा देखता एक मरी हुई आँख की भांति, अपना टोस्ट अनछुआ।
 
	
	

