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न्याय / शशि सहगल
Kavita Kosh से
कानून की कुर्सी पर बैठते ही मैंने
हाथों में डंडा उठा लिया
और कानों में रूई ठूँस ली
अब सब ओर शांति है।
कोई शिकायत नहीं करता
कभी कोई चिल्लाता है
तो सिर्फ आँखों से सुनती हूँ चीख
चीख का कोई दर्शन नहीं होता
चिल्लाहट का कोई चेहरा नहीं होता
इन आवाज़ों के जंगल को ज़रूरत होती है
न्याय की-
मैं जानती हूँ।
उन्हें न्याय की भाषा नहीं
डंडे की भाषा समझ आती है
मेरे कानों में रूई
और हाथों में डंडा है
उन्हें डंडे की भाषा से समझाना है।
प्रजातन्त्र के जंगल से
अपने देश की बची इमारत को
आकाश में उठाना है
उन्हें डंडे की भाषा से
समझाना है।