राग सारंग
न्हात नंद सुधि करी स्यामकी, ल्यावहु बोलि कान्ह-बलराम ।
खेलत बड़ी बार कहुँ लाई, ब्रज भीतर काहू कैं धाम ॥
मेरैं संग आइ दोउ बैठैं, उन बिनु भोजन कौने काम ।
जसुमति सुनत चली अति आतुर, ब्रज-घर-घर टेरति लै नाम ॥
आजु अबेर भई कहुँ खेलत, बोलि लेहु हरि कौं कोउ बाम ।
ढूँढ़ति फिरि नहिं पावति हरि कौं, अति अकुलानी , तावति घाम ॥
बार-बार पछिताति जसोदा, बासर बीति गए जुग जाम ।
सूर स्याम कौं कहूँ न पावति, देखे बहु बालक के ठाम ॥
भावार्थ :-- स्नान करते समय श्रीनन्द जी ने श्यामसुन्दरका स्मरण किया और कहा कि `श्याम और बलराम को बुला लाओ । व्रज के भीतर किसी के घर पर कहीं खेलते हुए दोनों ने बड़ी देर लगा दी । दोनों मेरे साथ आकर बैठैं, उनके बिना भला, भोजन किस काम का ।' यह सुनते ही श्रीयशोदा जी आतुरतापूर्वक चल पड़ीं । वे व्रज में घर-घर (पुत्रों का) नाम ले-लेकर उन्हें पुकार रही हैं । (गोपियों से बोलीं-) `आज कहीं खेलते हुए श्यामसुन्दर को बहुत देर हो गयी, कोई सखी उन्हें बुला तो लाओ ।' ढूँढ़ते हुए घूमती रहीं, किंतु मोहन को पा नहीं रही हैं । बहुत व्याकुल हो गयी हैं और धूप से संतप्त हो उठी हैं, श्रीयशोदा जी बार बार पश्चाताप कर रही हैं कि `दिन के दो पहर बीत गये (मेरे पुत्र अब भी भूखे हैं) ।' सूरदास जी कहते हैं कि उन्होंने बालकों के (खेलने के) बहुत-से स्थान देख लिये, किंतु कहीं श्यामसुन्दर को पा नहीं रही हैं ।