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न इच्छा से बड़ा है कोई / रवीन्द्र दास
Kavita Kosh से
न इच्छा से बड़ा है कोई
और न कोई छोटा अपनी इच्छाओं से।
इच्छाओं की व्याप्ति,
आदमी की हद है।
बुरा है वह देश, उस भाषा का समाज
जहाँ कहलाती हैं ज़रूरतें ही
इच्छाएँ।
जड़ दिया जब हार ने
चौखटे में आदमी को
हूक जब निकली कभी तो यह कहा -
रोटी मिले इक पेट भर
घूँट भर पानी मिले...
हूक थी जो
की गई पहचान - यह आवाज़ है
नाद, लय, सुर-ताल से संपन्न यह संगीत है
उसी फ़ोटो फ़्रेम में
जो क़ैद है
महरूम है यह जानने तक के लिए
कि भूख में और राग में इक फ़र्क है
इक फ़र्क है...