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न ख़ुदा न आइने न आदमी के सामने / सूरज राय 'सूरज'
Kavita Kosh से
न ख़ुदा न आइने न आदमी के सामने।
पर फफक के रो दिया दिल शायरी के सामने॥
मांगती है वह दुआ यारब खिले न ये बदन
फूल इक मसला गया यूँ इक कली के सामने॥
शोहरतों ने दौलतों ने ख़ूब भड़काया, मगर
पाँव टेके ही नहीं हमने ख़ुदी के सामने॥
ये तो है अभिमान से इक जंग स्वाभिमान की
इक समन्दर मर गया प्यासा नदी के सामने॥
लाल गुस्से ने बदन मीरा का नीला कर दिया
जीत के हर रंग जो हारी हरी के सामने॥
मस्तियाँ करते लबों पर हर लतीफ़े की क़सम
आज तक भीगी नहीं आँखे किसी के सामने॥
आँख धुंधली याद दुश्मन और कमर टेढ़ी, मगर
ढाँकती है अब भी सर माँ अजनबी के सामने।
एक चुनरी, धूप यूँ "सूरज" तेरी झुलसा गई
झुक गये सर दीपकों के तीरगी के सामने॥