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न ख़ून-ए-दिल है न मय का ख़ुमार आँखों में / 'शोला' अलीगढ़ी
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न ख़ून-ए-दिल है न मय का ख़ुमार आँखों में
बसी हुई है तुम्हारी बहार आँखों में
फिरी हैं पुतलियाँ बे-गाना-वार आँखों में
छुपा हुआ है कोई पर्दा-दार आँखों में
उम्मीद-ए-जलवा-ए-दीदार बाद-ए-मर्ग कहाँ
भरी है यास ने ख़ाक-ए-मज़ार-ए-आँखों में
दिए बग़ैर तिरे बाग़ में गुलों ने दाग़
चुभोए नर्गिस-ए-शहला ने ख़ार आँखों में
इलाही दीदा-ए-हैराँ खुला न रह जाए
ठहर न जाए कहीं इंतिज़ार आँखों में
वो रोने वाला हूँ ‘शोला’ कि बाद-ए-मर्ग मिरा
बनाएँ मर्दुम-ए-दीदा-ए-मज़ार आँखों में