भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
न चलने दूँ लहू में आँधियाँ अब / निश्तर ख़ानक़ाही
Kavita Kosh से
न चलने दूँ लहू में आँधियाँ अब
हुई है गोद की बच्ची जवाँ अब
उदासी से भरे गुमसुम घरों में
तमाशा बन गईं परछाईंयाँ अब
भरोसा किसको है पैरों पे अपने
ज़रूरी हो गईं बैसाखियाँ अब
बज़ाहिर पुर-सकूँ* शहरे-हवस* में
लड़ा करती हैं बाहम* कुर्सियाँ अब
बढ़ा क़र्ज़ा मगर खाते में अपने
लिखी जाने लगीं खुशहालियाँ अब
ज़मीनें बाँझ होती जा रही हैं
लहू पीने लगीं आबादियाँ अब
1- पुर-सकूँ-शांत
2-शहरे-हवस-स्वार्थों का नगर
3-बाहम-परस्पर