भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
न ज़िन्दगी नामज़द थी तुम्हारे / बलबीर सिंह 'रंग'
Kavita Kosh से
न ज़िन्दगी नामज़द थी तुम्हारे, न मौत मेरे ही सर लगा दी
अज़ल अजल में है फर्क इतना, इधर की बिन्दी उधर लगा दी
न मैक़दे से रही मुहब्बत, न पीने वालों से कोई नफरत
गज़ब की रहमत है तेरी साक़ी, मेरी तबियत किधर लगा दी।