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न जाने क्या हुए अतराफ़ देखने वाले / शाहिद मीर
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न जाने क्या हुए अतराफ़ देखने वाले
तमाम शहहर को शफ़्फ़ाक देखने वाले
गिरफ़्त का कोई पहलू नज़र नहीं आता
मलूल हैं मिरे औसाफ़ देखने वाले
सिवाए राख कोई चीज़ भी न हाथ आई
कि हम थे वरसा-ए-असलाफ देखने वाले
हमेशा बंद ही रखते हैं ज़ाहिरी आँखें
ये तीरगी में बहुत साफ़ देखने वाले
मोहब्बतों का कोई तज-रबा नहीं रखते
हर एक साँस का इसराफ़ देखने वाले
अब उस के बाद ही मंज़र है संग-बारी का
सँभल के बारिश-ए-अल्ताफ़ देखने वाले
गँवाए बैठै हैं आँखों की रौशनी ‘शाहिद’
जहाँ-पनाह का इंसाफ़ देखने वाले