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न जाने शेर में किस दर्द का हवाला था / सलीम अहमद

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न जाने शेर में किस दर्द का हवाला था
कि जो भी लफ़्ज़ था वो दिल दुखाने वाला था

उफ़ुक़ पे देखना था मैं क़तार क़ाज़ों की
मिरा रफ़ीक़ कहीं दूर जाने वाला था

मिरा ख़याल था या खौलता हुआ पानी
मिर ख़याल ने बरसों मुझे उबाला था

अभी नहीं है मुझे सर्द ओ गर्म की पहचान
ये मेरे हाथों में अंगार था कि ज़ाला था

मैं आज तक कोई वैसी ग़ज़ल न लिख पाया
वो सानेहा तो बहुत दिल दुखाने वाला था

मुआनी-ए-शब-ए-तारीक़ खुल रहे थे ‘सलीम’
जहाँ चराग नहीं था वहाँ उजाला था