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न जिन्दगी में ही तय हो तो मरहला कैसा / नज़ीर बनारसी

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न जिन्दगी ही में तय हो तो मरहला <ref>समस्या</ref> कैसा
जो सॉंस तोड़ के निकले वो हौसला कैसा

फजूल <ref>व्यर्थ</ref> सुलह-सफाई की बात करते हो
नहीं है जब कोई झगड़ा तो फैसला कैसा

जिसे सलाम न मंजिल करे वो रहरौ <ref>मुसाफिर</ref> क्या
जो दूरियाँ न समेटे वो फासला कैसा

घटे न उम्रे अलम <ref>दुख की उम्र</ref> जिससे वो मसर्रत <ref>खुशी</ref> क्या
जो जिन्दगी न बढ़ाये वो वलवला <ref>जोश, उमंग</ref> कैसा

तुम्हारे बन्दे हैं हम और तुम हो बन्दानवाज
हमारा और तुम्हारा मुकाबला कैसा

बढ़े न बात तो क्या आये गुफ्तगू का मजा
न खींचे तूल <ref>लम्बाई</ref> तो दिल का मुआमला कैसा

जो गौरो फिक्र <ref>चिन्तन-मनन, बौद्धिक मंथन</ref> को दावत न दे वो उक्दा <ref>गुत्थी</ref> क्या
जो मुश्किलों से न हल हो वो मसला कैसा

जो जान ले के न छोड़े वो आरजू कैसी
जो दम के साथ न निकले वो हौसला कैसा

लबों तक आते हुए अब हँसी लरजती है
खुशी ने गम से किया है तबादला कैसा

’नजीर’ अश्के रवाँ <ref>आँसू का प्रवाह</ref> ने भी साथ छोड़ दिया
लुटा है हसरतों अरमाँ का काफिला कैसा

शब्दार्थ
<references/>