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न जी-जी के मरते न मर-मर के जीते / विष्णु सक्सेना
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न जी-जी के मरते न मर-मर के जीते।
वो पहलू में आते तो जी भर के जीते।
दिया थे, जिया शान से ज़िंदगी को
मुखालिफ हवाओं से क्या डर के जीते।
तुम्हे याद रहती न जन्नत तुम्हारी,
अगर कुछ दिवस मेरे नैहर के जीते।
तुम्हारे पिघलने की मालूम होती
तो बूंदों से हम भी यूँ झर-झर के जीते।
तुम्हें हो न हो हमको पाकर ख़ुशी तो
कहें कैसे हम तुमको खोकर के जीते।