न डगमगाए कभी हम वफ़ा के रस्ते में / हबीब जालिब
न डगमगाए कभी हम वफ़ा के रस्ते में
चराग़ हमने जलाए हवा के रस्ते में
किसे लगाए गले और कहाँ कहाँ ठहरे
हज़ार ग़ुँचा-ओ-गुल हैं सबा के रस्ते में
ख़ुदा का नाम कोई ले तो चौंक उठते हैं
मिले हैं हमको वो रहबर ख़ुदा के रस्ते में
कहीं सलासिल-ए-तस्बीह और कहीं ज़ुन्नार
बिछे हैं दाम बहुत मुद्दआ के रस्ते में
अभी वो मँज़िल-ए-फ़िक्र-ओ-नज़र नहीं आई
है आदमी अभी जुर्म ओ सज़ा के रस्ते में
हैं आज भी वही दार-ओ-रसन वही ज़िन्दाँ
हर इक निगाह-ए-रुमूज़-आश्ना के रस्ते में
ये नफ़रतों की फ़सीलें जहालतों के हिसार
न रह सकेंगे हमारी सदा के रस्ते में
मिटा सके न कोई सैल-ए-इँक़लाब जिन्हें
वो नक़्श छोड़े हैं हम ने वफ़ा के रस्ते में
ज़माना एक सा 'जालिब' सदा नहीं रहता
चलेंगे हम भी कभी सर उठा के रस्ते में