भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

न दरवेशों का ख़िर्क़ा चाहिए / ज़फ़र

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

न दरवेशों का ख़िर्क़ा चाहिए न ताज-ए-शाहाना
मुझे तो होश दे इतना रहूँ मैं तुझ पे दीवाना.

किताबों में धरा है क्या बहुत लिख लिख के धो डालीं
हमारे दिल पे नक़्श-ए-कल-हज्र है तेरा फ़रमाना.

ग़नीमत जान जो दम गुजरे कैफ़ियत से गुलशन में
दिए जा साक़ी-ए-पैमाँ-शिकन भर भर के पैमाना.

न देखा वो कहीं जलवा जो देखा ख़ाना-ए-दिल में
बहुत मस्जिद में सर मारा बहुत सा ढूँढा बुत-ख़ाना.

कुछ ऐसा हो के जिस से मंज़िल-ए-मक़सूद को पहुँचूँ
तरीक़-ए-पारसाई होवे या हो राह-ए-रिंदाना.

ये सारी आमद-ओ-शुद है नफ़स की आमद-ओ-शुद पर
इसी तक आना जाना है न फिर जाना न फिर आना.

'ज़फ़र' वो ज़ाहिद-ए-बे-दर्द की हू-हक़ से बेहतर है
करे गर रिंद दर्द-ए-दिल से हाव-हु-ए-मस्ताना.