भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
न देखो शामो-सहर और न आज-कल देखो / दरवेश भारती
Kavita Kosh से
न देखो शामो-सहर और न आज-कल देखो
सुकूने-दिल मिले जिससे फ़क़त वो पल देखो
कोई भी रंग हो, गहरा कि हल्का या मद्धम
हर एक रंग में जज़्बात के कँवल देखो
जो उँगली थामे मुक़द्दर की चलता रहता है
ज़रा उस आदमी का भी भविष्यफल देखो
फ़क़त ये देखो, ये कितना अमल में आता है
न जल की धार को देखो, न सिर्फ़ जल देखो
अना की गैस से फूला उड़ा वो ऊँचा बहुत
अब औंधा पड़ता है कब फ़र्श पर,वो पल देखो
गये निज़ाम में क्या-क्या हुआ, ये देख लिया
नये निज़ाम में होती उथल-पुथल देखो
किसी बुलन्द इमारत की टीम-टाम के साथ
वो कितनी पुख्ता है 'दरवेश' उसका तल देखो