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न दो कुंती की पीड़ा / धीरेन्द्र अस्थाना

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कितनी ही
कुन्तियाँ देती हैं छोड़;
कर्णों को
जीवन के अस्तित्त्व से,
करने को संघर्ष!

कर्ण के
जन्म का है
अबोध अपराध;
या कुंती की
कोई अक्षम्य भूल!

समाज के
निष्ठुर नियम
और न जाने कितने ही
महाभारतों को देंगें जन्म!

क्या समाज
नहीं कर सकता;
स्वयं की त्रुटि का
प्रायश्चित व प्रतिकार!

अब बचा लो
कुंती को
अभिशापित
होने से, और
किसी माँ को
न दो कुंती की पीड़ा!