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न पूछो ये क्या माजरा देखता हूँ / श्याम कश्यप बेचैन

न पूछो ये क्या माजरा देखता हूँ
मैं अपने को अक्सर मरा देखता हूँ

कभी देखता था जहाँ पर हवेली
वहीं आजकल मक़बरा देखता हूँ

ये माटी के पुतले कहीं गल न जाएँ
हर इक सिम्त पानी भरा देखता हूँ

कोई हादसा हो गया क्या शहर में
जिसे देखता हूँ, डरा देखता हूँ

यही सोचकर, कोई बाहर तो होगा
हरेक शख़्स का कटघरा देखता हूँ

मेरे दिल को मिलती है थोड़ी-सी ठंडक
किसी पेड़ को जब हरा देखता हूँ