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न पूछो / कविता भट्ट
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बेला – आजन्म आजादों की साहब!
खंडित प्रतिमानों के मोल न पूछो
शेखर-चन्द्र रखे आजादी के युग वे
उनके कैसे गूँजे थे वे बोल न पूछो !
खुली हवा में साँस ली जिन्होंने पहली
वे अब कहते हैं; ये सब झोल न पूछो
छत पर रखते गमले सुंदर फूलों वाले
नींव के पत्थर कितने अनमोल न पूछो!
राष्ट्र-भावना दम भर तो दम भर ले
संभावना के दाम और खोल न पूछो
लोकतंत्र- कर्त्तव्य स्वाहा अधिकारों में
अब इस बजते ढोल की पोल न पूछो !
बिन संघर्ष मिले इन्हें शिक्षा के मन्दिर
वीर सपूतों के बलिदानों के तोल न पूछो
चक्रव्यूह में फँसे युवा; कैसा देश कैसा प्रेम?
विष नारों में घुला; हालत डाँवाडोल न पूछो !