भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
न फूल बनके वो आए न ख़ार लेके गए / कांतिमोहन 'सोज़'
Kavita Kosh से
न फूल बनके वो आए न ख़ार लेके गए ।
बहार बनके जो आए बहार लेके गए ।।
इन आँसुओं का भी एहसान है मेरे सर पर
गए तो साथ मैं गर्दो-ग़ुबार लेके गए ।
वो मुझ ग़रीब को तनहा बनाके छोड़ गए
गए तो सारे मेरे ग़मगुसार लेके गए ।
किसे यगाना कहें और किसे अदू मानें
शबे-विसाल के क़िस्से हज़ार लेके गए ।
मैं शर्मसार हूँ पैरों ने दिल की एक़ न सुनी
ये उसके दरपे मुझे बार-बार लेके गए ।
अजब हैं सोज़ के दीवानगी के अफ़साने
सुना है आपकी महफ़िल में प्यार लेके गए ।।