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न फॉसी न यूं विष ग्रहन ढूँढना था / आर्य हरीश कोशलपुरी

न फाँसी न यूं विष ग्रहन ढूँढना था
चले कैसे जीवन जतन ढूंढना था

मिटे कैसे इंसानियत ढूंढते हैं
प्रकृति का सखे विष वमन ढूंढना था

न मजहब की चिंता न पंथों का चक्कर
धरा पर हमें वह चलन ढूंढना था

धरा हर बशर की जो रहती बराबर
तो किस बात का फिर ग़बन ढूंढना था

अरे ख़ुशबुओं क़ैद का है नतीज़ा
बहारों में वेश्यागमन ढूंढना था

सदाचार जब घर से बाहर न निकला
उसी कीच में फिर रतन ढूंढना था