भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

न बरसे झूम कर बादल उसे सावन नहीं कहते / रंजना वर्मा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

न बरसें झूम कर बादल घिरा सावन नहीं कहते
न हों किलकारियाँ तो चौक को आँगन नहीं कहते

महकता जो रहे हरदम लुटाये गन्ध मद वाली
भरा हो जो न फूलों से उसे गुलशन नहीं कहते

वही है राह चल जिस पर पहुँच जाते है मंजिल तक
बताये सच न जो सब को उसे दरपन नहीं कहते

लगे माथे पर तो सब को बचा लेता बलाओं से
सजाये जो न आँखों को उसे अंजन नहीं कहते

हजारों नाग लिपटे हों रहे फिर भी सदा शीतल
न हो निर्लिप्त जो विष से उसे चन्दन नहीं कहते

करे निस्वार्थ सेवा हो नहीं प्रतिदान की इच्छा
जहाँ हो चाह पाने की उसे अरपन नहीं कहते

बहुत जद्दो जहद हो ज़िन्दगी का बोझ हो भारी
न हो बेफ़िक्र चंचल तो उसे बचपन नहीं कहते