भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

न मानोगे गर तुम ख़ुदा की ख़ुदी को / पूजा बंसल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

न मानोगे गर तुम ख़ुदा की ख़ुदी को
तो समझोगे क्या फिर मेरी बंदगी को

तमन्नाएं अहसान मानेंगीं तेरा
ज़रा सी नमी दो मेरी तिशनगी को

हक़ीक़त से नफ़रत सी होने लगी है
तसव्वुर में पाने लगे है किसी को

अंधेरों में तुझको जीये जा रहे हैं
चराग़ों की फिर क्या ज़रूरत ख़ुशी को

इबादत के कुछ क़ायदें भी बता दो
ख़ुदा_कह चुकी हूँ मैं इक अजनबी को

दिलों की ये बातें हैं ‘पूजा’ के क़ाबिल
सवालों में रक्खो न पाकीज़गी को