न मिल सका कहीं ढूँढ़े से भी निशान मेरा / निश्तर ख़ानक़ाही
न मिल सका कहीं ढूँढ़े से भी निशान मेरा ।
तमाम रात भटकता रहा गुमान मेरा ।
मैं घर बसा के समंदर के बीच सोया था ।
उठा तो आग की लपटों में था मकान मेरा ।
जुनूँ[1] न कहिए उसे ख़ुद अज़ीयती[2] कहिए
बदन तमाम हुआ है लहूलुहान मेरा ।
हवाएँ गर्द की सूरत उड़ा रही हैं मुझे
न अब ज़मीं ही मेरि है न आसमान मेरा ।
धमक कहीं हो लरज़ती हैं खिड़कियाँ मेरी
घटा कहीं हो टपकता है साएबान मेरा ।
मुसीबतों के भँवर में पुकारते हैं मुझे
अजीब लोग हैं लेते हैं इम्तेहान मेरा ।
किसे ख़तूत[3] लिखूँ हाले दिल सुनाऊँ किसे
न कोई हर्फ़ शनासा[4], न हम-ज़ुबान[5] मेरा ।
शब्दार्थ:
1. ↑ दीवानगी, एक बीमारी
2. ↑ स्वयं को दुख देना
3. ↑ ख़त (पत्र) का बहुवचन
4. ↑ लिपि जानने वाला
5. ↑ एक ही भाषा को जानने वाला